फेसबुक पर टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने एक सोसा छोड़ा कि भारत का विकिलीक्स कौन हो सकता है। उन्होंने कुछ वेबसाइट्स के नाम भी गिना दिये। कई लोगों ने बता भी दिया कि ये ये हो सकते हैं। यह भी हमारे समय और समाज की विचित्रता का एक उदाहरण ही है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो घटना सबसे अधिक झकझोरने वाली है और जिसने धरती के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के आत्मविश्वास पर हमला किया है – उसकी एक संभावित प्रतिकृति हम अपने आस-पड़ोस में सोचने लगते हैं। हमारे यहां सरकारी दस्तावेजों की जानकारी हासिल करने के लिए सूचना का अधिकार है और इसका इस्तेमाल करना धीरे-धीरे लोग जान रहे हैं। आरटीआई पर रवीश के ही चैनल ने रिपोर्टिंग की एक सीरीज चलायी थी। बाद में हमने देखा कि कुछ आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गयी। पुणे के सतीश शेट्टी और बेगूसराय के शशिधर मिश्रा ऐसे ही कार्यकर्ता थे।
कॉरपोरेट्स पर अभी सूचना का अधिकार कानून लागू नहीं है। इसलिए वहां की बदबू बाहर नहीं आ पाती है। लेकिन कहीं से कोई सूचना वहां से निकलती है, तो लोगों का गुस्सा भी संगठित होकर निकलता है। मोहल्ला लाइव पर इसी साल मार्च महीने में हमने डेनमार्क की एक कंपनी के भारतीय प्रोजेक्ट की कुछ अंदरूनी कहानी छापी थी, विदेशी कॉर्पोरेट कंपनियां : शोषण की नयी कहानी – तो दुख भरी दास्तान सुनाने वाले कर्मचारियों का तांता लग गया। जब इंतहां हो जाती है, लोग सामने आने लगते हैं। अगर अभी तक भारत में कॉरपोरेट्स की गुंडागर्दी से पर्दा नहीं उठ रहा है, तो मान कर चलिए कि उनकी बेहयाई अभी अपने क्रूर रंग में आने से बची हुई है।
विकिलीक्स जैसा कुछ करने के लिए मंशा चाहिए। वह हमारी नहीं है। हम किसी भी सच्चाई से ज्यादा खुद से प्यार करते हैं – यह सच है। और विकिलीक्स माध्यमों (प्रिंट, ध्वनि, टीवी, वेब) का मसला नहीं है – वह सच्चाई से कुर्बान हो जाने की हद तक प्यार करने का मसला है। ये जिद जब किसी में आएगी, तो वह किसी भी माध्यम का इस्तेमाल करके विकिलीक्स जैसा काम कर जाएगा।
हमारे यहां और हमारे पड़ोस में कई सारी ऐसी चीजें हैं, जिसके दस्तावेजों को खोजा जाना चाहिए। बल्तिस्तान का मसला, कश्मीर पर सियासी फायदों से जुड़े रहस्य, मणिपुर को लेकर सरकारी पॉलिसी, युद्धों में आदेशों की फाइलें, गुजरात, 26/11… हमारे सामने किसी का भी पूरा सच मौजूद नहीं है। हमारे टेलीविजन सरकारी जबान को ही सच मानते हैं और जो सूत्रों से जानते हैं, उनमें विस्मयादिबोधक चिन्ह लगाते हैं। अपनी तरह से सच तक पहुंचने की जहमत नहीं उठाते।
एक बात यह भी है कि हम गरीब देश हैं और हमारे यहां अपनी दिलचस्पियों के साथ वयस्क होने की इजाजत नहीं है। हम दूसरों की उम्मीदों के हमदम होते हैं और हमारी ख्वाहिशों का कोई मददगार नहीं होता। हम हिंदी पढ़ते-पढ़ते साइंस पढ़ने लगते हैं। पत्रकारिता करते करते पीआर करने लगते हैं और आंदोलन करते करते संसद खोजने लगते हैं। ऐसे में कौन बनेगा जूलियन असांजे, एक अजीब सवाल है और फिलहाल तो विकल्प गिनाने के नाम पर दूर दूर तक कोई प्रतीक भी नहीं है।
(अविनाश। मोहल्ला लाइव के मॉडरेटर। विमर्श का खुला मंच बहसतलब टीम के सदस्य। प्रभात खबर, एनडीटीवी और दैनिक भास्कर से जुड़े रहे हैं। राजेंद्र सिंह की संस्था तरुण भारत संघ में भी रहे। उनसे avinashonly@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)
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