गोधरा ट्रेन फायर का फैसला आते ही एक टीस तो इस बात पर महसूस हुई कि वे 63 लोग 9 वर्षों तक जेल में बंद क्यों रहे, जब उन्हें अन्तत: छूट ही जाना था। इस मुकदमें में सारे साक्ष्य पहले कुछ महीनों में ही आ गए होंगे और उन्हें देख कर यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं रहा होगा कि उनके विरुद्ध सजा पाने लायक सबूत नहीं है। तब फिर क्यों अपने अहम को या कुछ लोगों के अहम को संतुष्ट करने के लिए ही उन्हें जेलों में रखना जरूरी था।
मुकदमें के तथ्यों को जरा देखा जाय तो पता चलता है, घटना 27 फरवरी 2002 की है। साबरमती ट्रेन में आगजनी से 59 कार सेवकों की मौत हुई थी। 1500 लोगों के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। 28 फरवरी से 31 मार्च तक गुजरात में दंगे हुए। 1200 से अधिक लोग मारे गये। 3 मार्च को गोधरा अभियुक्तों पर फोटो (आतंकवाद निरोधक अध्यादेश) लगा। 22 दिनों बाद 25 मार्च को पोटो हटाया गया। 21 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा एवं गुजरात दंगों से संबंधित मुकदमों पर रोक लगाई। 21 सितंबर को यू.पी.ए सरकार ने पोटा खत्म कर दिया। इसके बाद सिलसिला चला दो न्यायिक आयोगों को जिन्होंने परस्पर विरोधी राय दी। एक मई, 2009 को सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा मामले की सुनावाई पर से प्रतिबंध हटा दिया। फिर जांच ने गति पकड़ी और अब फैसला। यहॉ सवाल यह उठता है कि जब 25 मार्च 2008 के बाद और फिर 21 नवंबर 2002 के बाद से 37 अभियोक्तो को क्यों जमानत नहीं दी गई, जिन पर आरोप काफी पुख्ता नहीं थे।
आपराधिक न्यायिक सिस्टम में कब जमानत दी जाय और कब नहीं, इस पर हमारी न्यायपालिका स्वविवेक से काम लेती है, जिसके बारे में उतनी रायें है जितने कि न्यायधीश। क्या ऐसी कोई प्रणाली वैज्ञानिक, सही या पारदर्शी हो सकती है? ऐसा नहीं होता और इसी का खामियाजा निरीह जनता को भुगतना पड़ता है। कई बार ऐसा लगता है कि कुछ खास बिन्दुओं पर एक राय होकर ऐसे नियम बनाये जाएं कि लोग कुछ न करके भी जेलों में ही वर्षों गुजार दें। उनके पीछे उनका परिवार कैसे बरबाद हो जाता है, इसे इन 63 लोगों के परिवारों से बातचीत कर जाना जा सकता है।
इसी देश में बिना किसी ट्रायल के बोका ठाकुर जैसे लोगों की 37 वर्ष जेल में और रुदल साहा को 19 वर्षों तक ट्रायल के दौरान और रिहाई के बाद 16 वर्षों तक (कुल 35 वर्ष) जेल में रहना पड़ा।
रुदल साहा का मुकदमा 1983 में सर्वोच्च न्यायलय में आया और पहली बार उसे अधकारियों की गलती का खामियाजा भुगतने के बदले, 35 हजार रुपये मुआवजा मिला। आज भी उसी मुकदमें के आधार पर 63 परिवरों को मुआवजा का दावा बनता है। (पर सर्वोच्च न्यायलय के फैसले के बाद) आज रिहाई होने के बाद उनके 9 वर्षों को वापस कर पाना आसान नहीं है। जमानत के वक्त यह जरुर सोचा जाना चाहिए जब ऊपरी अदालत से अनिश्चित काल के लिए सुनवाई पर रोक लगा दी जाती है, तो उन्हें जमानत देदी वहॉ 7-8 वर्ष गुजर जाना मामूली बात होती है, जैसा कि इस मुकदमें में हुआ। जब सर्वोच्च न्यायलय से रोक हट जाती तो उन्हें सुनवाई के वक्त दुबारा गिरफ्तार किया जा सकता था या उसी जमानत पर रहने दिया जा सकता था।
यह सच है कि मुकदमों को लेकर राजनीतिक दांवपेंच अपने चरम पर थे पर न्यायपलिका को इससे क्या लेना-देना है. यदि कहा जाय कि जांच में तेजी तब आई जब सर्वोच्च न्यायालय की रोक हटी, यानि 1 मई, 2009 को, तो भी सवाल उठता है कि इतनी देर से हुई जांच की गुणवत्ता क्या रही होगी? वैसे भी आपराधिक न्यायिक सिस्टम में देर से आये एफ.आई.आर एवं लंबे समय बाद गवाहों की जांच पड़ताल सारे तथ्यों को नष्ट कर देती है, और तब अभियोजन के पास कुछ नहीं बचता सिवाये लकीर पीटते रहने के।
इतनी देर बाद, इतने संवेदनशील मामले में राजनीतिक बयान आ रहे हैं। नेताओं की अहम तुष्टि या असंतुष्टि जारी है पर उनका क्या जो इस खेल में साबरमती एक्सप्रेस में जल कर मरे या जो बेबजह जेल में सड़ते रहे। इनके बारे में सोचने वाला कोई नहीं। उन्होंने उनके परिवारों ने जो खोया वह वापस नहीं आ सकता। पर इस सवका दोष तो न्यायिक प्रणाली के माथे पर ही लगेगा। ट्रायल कोर्ट से लेकर सर्वोच्च न्यायलय तक जो पोटा लगाते रहे, हटाते रहे, कमीशन में राय देते रहे या स्टे लगाते रहे या हटाते रहे।
इसीलिए आवश्यक है कि ऐसे संवेदनशील मामलों में न्यायपालिका त्वरित एवं सही न्याय की प्रक्रिया अपनाए किसी भी तरह से प्रभावित हुए बिना करना उसकी प्रतिष्ठा के लिए सही नहीं है।
वैसे भी जहां भीड़ कोई दंगा या अपराध करती है (जैसे कि यहा हुआ) वहां उन्हीं पर मुकदमा चलाया जाता है या सजा दी जा सकती है जिन पर खास आरोप यथा- नारे लगाना, हथियारों से लैस होना या मारना, जलाना, पेट्रोल छिड़कना, मासिच या लाईटर को उपयोग करना जैसे आरोप हों। ऐसे मामलों में सारी भीड़ दोषी या अपराधी नहीं होती। भारत जैसे देश में मामूली बात पर भीड़ का इकट्ठा होना आम बात है- वे सब अपराधी नहीं होते। जाहिर है इन 63 लोगों को भी ऐसे ही कारणों से छोड़ा गया होगा तो उन्हें जेल में रखना वह भी 9 वर्षों तक कहीं से भी सही कदम नहीं था।
लेखिका सर्वोच्च न्यायालय में अधिवक्ता है।
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