मुजफ्फरनगर जल रहा है. शामली और सुल्तानपुर के दंगों की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि दिल्ली से 120 किलोमीटर दूर बसा उत्तर प्रदेश का औद्योगिक शहर जल उठा. वजह थी एक लड़की से छेड़छाड़ पर दो समुदायों का आमने-सामने आ जाना.
समाजवादी पार्टी की धर्मनिरपेक्ष सरकार के डेढ़ वर्ष के अल्प कार्यकाल का यह 13वां बड़ा दंगा था. वैसे समाजवाद की अवधारणा को परे छोड़ धर्मनिरपेक्षता का आवरण ओढ़कर अखिलेश सरकार की सत्ता में 40 से अधिक दंगे यह तो दर्शाते ही हैं कि उत्तर प्रदेश वाकई धर्मनिरपेक्षता का सापेक्ष उदाहरण पेश कर रहा है.
एक हफ्ते पहले मुजफ्फरनगर में फैली दंगे की आग एक पत्रकार समेत 28 लोगों को लील चुकी है. दंगे की विभीषिका का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहरी इलाके को छोड़कर आसपास के गांवों में भी सेना तथा आरएसी को मोर्चा संभालना पड़ रहा है. यहां तक कि उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में भी पुलिस प्रशासन को अतिरिक्त सतर्कता बरतने के आदेश हैं.
राजनीति में अपेक्षाकृत कम अनुभवी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जब दंगे की विभीषिका को समझने और संभालने में नाकाम रहे, तो मुलायम सिंह को आगे आकर मोर्चा संभालना पड़ा. हालांकि स्थिति अभी भी जस की तस है और दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश देने पड़े हैं. 15 मार्च 2012 को जब अखिलेश ने सूबे के सबसे युवा मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी, तो कमोबेश सभी राजनीतिक विश्लेषकों का यह अनुमान था कि अखिलेश अपनी सोच और ताजगी से सपा पर लगा वह दाग तो धो ही देंगे जिसमें यह कहा जाता रहा है कि सपा सरकार के कार्यकाल में गुंडागर्दी और यादववाद को बढ़ावा मिलता है.
सूबे की जनता ने भले ही मायावती के कुशासन से त्रस्त होकर सपा को सत्ता सौंपी हो, किन्तु उसे ज़रा भी भान नहीं था कि इस बार परिस्थितियां बदली हुई हैं. लोकसभा चुनाव को अब अधिक समय नहीं बचा है. सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी रणनीतियों को अंजाम देने में लगे हैं; ऐसे में प्रदेश के छोटे-बड़े संवेदनशील शहरों में दंगे होना किसी दूरगामी रणनीति का पड़ाव तो नहीं हैं?
भाजपा की ओर से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पार्टी की चुनाव प्रचार समिति का मुखिया बनाकर संघ ने यह संकेत देने की कोशिश की कि अब हिंदुत्व की राजनीति को एक बार फिर से जीवित किया जाएगा. इसी रणनीति के तहत मोदी ने भी अपने ख़ास सिपहसालार अमित शाह को उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया, ताकि हिंदुत्व की बुझती लौ तथा बहुसंख्यक समुदाय की आस्था को शाह दोबारा भड़का सकें.
उनका अयोध्या जाना और राममंदिर के पक्ष में बोलना, चौरासी कोसी यात्रा का असमय ऐलान और उस पर हुई राजनीति काफी हद तक संघ और मोदी के मन मुताबिक़ ही थी. फिर जहां तक सपा की बात है तो सभी जानते हैं कि उत्तर प्रदेश में 18 फीसद से अधिक वोट बैंक मुस्लिमों के पास है, जो सपा और कांग्रेस दोनों में बंटा हुआ है. यदि आगामी लोकसभा चुनाव में किसी भी पार्टी को सूबे में सपना परचम फहराना है, तो उसे किसी एक समुदाय का थोक वोट बैंक चाहिए.
फिलहाल सूबे में जो स्थिति है, उसे देखकर तो ऐसा जान पड़ता है कि वोटों के ध्रुवीकरण की जद्दोजहद में सपा-भाजपा में परदे के पीछे कोई बड़ा खेल हुआ है. इस वर्ष मार्च में सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह की तारीफ में कसीदे गढ़े थे. यहां तक कि उन्होंने लीक से हटकर लगे हाथ समाजवाद और राष्ट्रवाद के लिए समान पहलुओं को भी बताया. उन्होंने समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की एक समान विचारधारा को भी साथ आने के संकेत के तहत सार्वजनिक किया.
सीमा सुरक्षा, देशभक्ति और भाषा के मसले पर निश्चित रूप से लोहिया का समाजवाद और गोलवरकर का राष्ट्रवाद बहुत अलग नहीं है, लेकिन आज के दौर में लोहिया के समाजवाद और गोलवरकर के राष्ट्रवाद की अहमियत है ही कितनी? फिर लोहिया के समाजवाद की जितनी धज्जियां मुलायम सिंह ने उड़ाई हैं, उतनी किसी ने नहीं. ठीक उसी तरह भाजपा को भी राष्ट्रवाद तभी याद आता है जब उसका वोट बैंक उससे छिटक रहा हो.
मुलायम और राजनाथ; कमोबेश दोनों का राजनीतिक उत्थान अयोध्या से हुआ है. एक हिन्दुओं का रहनुमा बना, तो दूसरा मुस्लिमों का चहेता. दोनों का अपना निश्चित वोट बैंक है और दोनों की राजनीतिक शैली भी भिन्न है. ऐसे में इस दोस्ती का कुछ तो अंजाम होगा और शायद वह इस रूप में प्रकट भी हो रहा है. राजनाथ की तारीफ से मुलायम उनके कितना नजदीक पहुंचे यह तो पता नहीं, किन्तु राजनाथ का दिल मुलायम के प्रति ज़रूर पिघला होगा.
राजनाथ के बारे में कहा जाता है कि वे संघ को भी अपने दरवाजे पर नतमस्तक करवा सकते हैं और सूबे में भाजपा की दुर्गति भी उन्हीं की कारगुजारियों से हुई है. हो सकता है इस लिहाज से दोनों बड़े नेताओं की अघोषित गुटबाजी का नतीजा सूबे का आम आदमी दंगों की विभीषिका के रूप में भुगत रहा हो? चूंकि दंगों को राजनीतिक पृष्ठभूमि ही भड़काती है, लिहाजा इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आने वाला समय उत्तर प्रदेश की जनता के लिए दुष्कर होने वाला है.
वोट बैंक की राजनीति के तहत ही सपा सरकार ने आईएएस दुर्गाशक्ति नागपाल को हटाया और अब इस वोट बैंक की राजनीति उसकी अक्षमताओं को उजागर कर रही है. वरना मुजफ्फरनगर का प्रशासन तिल का ताड़ बनता हुआ नहीं देखता रहता. यह निश्चित रूप से प्रशासन और सरकार की नाकामी और राजनीति का विद्रूप रूप है.
इन विपरीत परिस्थितियों में अखिलेश के युवा कांधों पर जिम्मेदारियों का जो बोझ पड़ा है, वह संकेत दे रहा है कि राजनीति में युवा होना ही मायने नहीं रखता बल्कि राज करने की नीति का भान भी होना चाहिए. ऐसा लगता था कि अखिलेश को अपने पिता मुलायम सिंह की राजनीतिक समझ का लाभ मिलेगा, मगर हुआ इसका उल्टा. मुलायम को दिल्ली रास आई और अखिलेश पर आजम खान व रामगोपाल यादव हावी हो गए.
चूंकि बतौर मुख्यमंत्री अखिलेश का नाम ही हर सफलता-विफलता के लिए जिम्मेदार होता, अतः मंत्रियों से लेकर सपा के वर्तमान कर्णधारों तक की कथित सफलता व सही मायनों में विफलता का ठीकरा अखिलेश के ही सर फूटा. अखिलेश लाख सफाई देते फिरें कि स्थितियां सामान्य होने में अभी वक़्त लगेगा, किन्तु वे यह तो तय करें कि इन स्थितियों को ठीक कौन करेगा? क्या आजम खान, रामगोपाल यादव तथा मुलायम सिंह की तिगडी अखिलेश को अपनी छाया से मुक्ति देगी, ताकि वे अपनी ऊर्जा का सही मायनों में दोहन कर सूबे के विकास के प्रति गंभीर हों?
अखिलेश पर राजनीति से इतर पारिवारिक दबाव स्पष्ट दृष्टिगत होता है. पूरवर्ती सपा शासन की तुलना उनकी सरकार से होना ही अखिलेश का सर-दर्द बढ़ा रहा है. फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में सपा का विधानसभा वाला चमत्कारिक प्रदर्शन दोहराने की जिम्मेदारी भी अखिलेश पर है. मुलायम कितने भी अनुभवी हों, मगर राजनीति में एक सीमा होती है और मुलायम भी उस सीमा को नहीं लांघ सकते.
स्मरणशक्ति खोते जा रहे मुलायम को राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित करने का अघोषित जिम्मा भी अखिलेश सरकार की सफलता से सुनिश्चित होगा. यानी अखिलेश के लिए अभी चुनौतियों का मैदान सामने है और यदि वे इनसे पार नहीं पा सके तो यह उनकी और मुलायम की राजनीतिक हार होगी. फिर यह कहना भी अतिश्योक्ति नहीं होगा कि धरतीपुत्र का पुत्र कहीं हवा-हवाई नेता की राह पर तो अग्रसर नहीं है. ऐसा हुआ तो राजनीति में व्याप्त इस सोच को भी आघात लगेगा कि युवा ही राजनीति में बदलाव ला सकते हैं.
अखिलेश को जनता ने सुनहरा मौका दिया है कि वे पूरवर्ती शासन के पाप धोते हुए सूबे को विकास पथ पर अग्रसर करें और ऐसा न कर पाने के एवज में उनकी भद पिटना तय है जिसका परिणाम 2014 में तो दिखेगा ही, भावी विधानसभा चुनावों में भी उन्हें इसकी कीमत चुकानी पड़ेगी.
यह वक़्त निश्चित रूप से अखिलेश के लिए अग्निपरीक्षा का है, जिसमें तपकर ही वे मिसाल कायम कर सकते हैं वरना उनकी गिनती भी उन्हीं नेता पुत्रों में होगी जो राजनीति में पैराशूट के ज़रिये उतारे जाते हैं. अखिलेश को अब खुद के निर्णय को परिपक्वता के पैमाने पर तौलकर सूबे में शांति कायम करने की पहल करना होगी, वरना आज मुजफ्फरनगर जल रहा है और यही हाल रहा तो देश के सबसे बड़े सूबे को जलने से कोई नहीं रोक पायेगा?
~सिद्धार्थ शंकर गौतम
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