RSS के स्वयंसेवकों को तमाम नेताओं की तरह ज़ुबानी तीर चलाने (Verbal Diarrhea) की बीमारी कभी नहीं होती. संघ में ऐसे संक्रमण से बचाव के लिए नियमित टीकाकरण होता रहता है, ताकि ज़ुबान कभी बेलग़ाम न हो. संघ के ऐसे आन्तरिक अनुशासन का कोई अपवाद नहीं होता. वहाँ से हरेक बात लम्बे चिन्तन, विचार-विमर्श और दूरगामी नफ़ा-नुक़सान को परखने के बाद ही सामने आती है. मोहन भागवत ने ‘आरक्षण नीति की समीक्षा’ का शिगूफ़ा किसी टुटपुंजिए नेता की तरह नहीं छोड़ा था. उनकी ज़ुबान फिसलने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता. तो फिर क्या वजह थी कि संघ और बीजेपी के प्रवक्ताओं को अपने ‘आदर्श पुरुष’ के बयान पर सफ़ाई देने के लिए आगे आना पड़ा? अगर आपको लगता है कि ये सारी क़वायद सिर्फ़ बिहार चुनाव को लेकर माहौल बिगड़ने की आशंका को देखते हुए की गयी, तो आप आंशिक सत्य ही जानते हैं. इसीलिए भागवत के बयान को गहराई से समझना ज़रूरी है.
राम-मन्दिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता जैसे तीन मुद्दों के बाद भागवत ने अब ‘राष्ट्रीय महत्व’ के जिस चौथे मुद्दे पर अपनी मोहर लगायी है उसे आप ‘आरक्षण नीति की समीक्षा’ कह सकते हैं. ‘ग़ैर-सरकारी सामाजिक संगठन’ संघ के अघोषित काम चाहे जो हों, लेकिन घोषित काम सिर्फ़ ‘राष्ट्रीय महत्व’ के मुद्दों को तलाशना और जागरूकता फ़ैलाना ही है. इसीलिए जब इसका मुखिया ‘आरक्षण नीति की समीक्षा’ की बात करता है, तो वो बहुत बड़ी हो जाती है. क्रीमी-लेयर, आर्थिक आधार और समीक्षा की बातें नयी तो हैं नहीं, तो फिर भागवत को बोलने की क्या पड़ी थी?
काँग्रेस के मनीष तिवारी आज पार्टी के प्रवक्ता नहीं हैं. उनका बयान काँग्रेस का नज़रिया नहीं है. मनीष ने 2014 में ख़राब सेहत के नाम पर लुधियाना सीट से कन्नी काट ली थी. शायद, मोदी लहर उन्हें दिख गयी थी. वर्ना, क्या नेता जेल में रहकर चुनाव नहीं लड़ते हैं? मनीष की ही तर्ज़ पर काँग्रेस के पूर्व मीडिया प्रभारी और महासचिव जनार्दन द्विवेदी ने भी 2014 के चुनाव से पहले ‘आरक्षण नीति की समीक्षा’ का मुद्दा छेड़ा था. उनका बयान भी निजी राय थी, पार्टी का नज़रिया नहीं. थोड़े समय बाद जनार्दन, मीडिया प्रभारी नहीं रहे. लेकिन तब न तो मायावती ने तीखे तेवर दिखाये थे, न जेडीयू ने और न ही लालू यादव ने संस्कृत-निष्ठ ग़ाली दी थी कि ‘माँ का दूध पीया है तो ख़त्म करके दिखाओ, किसकी कितनी ताक़त है, पता लग जाएगा’ यानी ‘If you’re the true son of your mother, go ahead and end it, you’ll learn whose strength is stronger.’
लालू का ये तेवर अत्यधिक तीखा है. अँग्रेज़ी अनुवाद से इसका सही भाव नहीं समझा जा सकता. क्योंकि अँग्रेज़ी में ‘माँ के दूध’ की महिमा वैसी नहीं है, जैसी भारतीय संस्कृति में पन्ना धाय ने स्थापित की है. हिन्दी में ‘माँ के दूध’ को ललकारने से बड़ी कोई और चुनौती नहीं होती. यहाँ पुत्र का सबसे बड़ा कर्त्तव्य ‘माँ के दूध’ का ही क़र्ज़ उतरना होता है. भारतीय सैनिक भी जब सर्वोच्च बलिदान की राह पर होता है तो वो आँखों ही आँखों में तिरंगे को चूमकर ‘माँ के दूध’ का क़र्ज़ उतरता है. इसीलिए लालू ने मोदी को ललकारा है कि वो बताएँ कि संघ प्रमुख के बयान पर उनकी क्या राय है? नरेन्द्र मोदी ने पार्टी से सफ़ाई दिलवा दी कि वो ‘आरक्षण’ पर वैसे ही चूँ तक नहीं करेंगे, जैसे उन्होंने ललित मोदी काँड और व्यापम घोटाले पर अपने होठ सिल लिये थे. ख़ामोशी भी हथियार है. नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ने इसे बखूबी आज़माया. अब मोदी उनसे इतना तो सीख ही सकते हैं.
आरक्षण नीति को बदलने की बात मोहन भागवत ने अनायास नहीं की. 1981 में संघ ने प्रतिनिधि सभा में आरक्षण पर जो प्रस्ताव पारित किया, हूबहू वही बातें अब भागवत ने दोहरायी हैं. उस दौर में बीजेपी और संघ को लगा कि आरक्षण की मुख़ालफ़त से उसकी दाल नहीं गलेगी. तब काँग्रेस का वोट-बैंक हथियाने वाली पार्टियाँ जैसे जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का जन्म नहीं हुआ था. इसीलिए तब संघ ने राम मन्दिर का मुद्दा ढूँढा. इससे बीजेपी के दिन फिर गये थे. लेकिन अब संघ को ये चिन्ता सता रही है कि अगली बार मोदी लहर की सवारी तो मुमकिन होगी नहीं, क्योंकि राजनीति में एक ही मुद्दा बार-बार परवान नहीं चढ़ता. मोदी विकास की चाहे जितनी डुगडुगी बजा लें लेकिन अगले चुनाव तक उनके बहुत सारे सपने टूट चुके होंगे. ‘अच्छे दिन’ की कलई खुल चुकी होगी. लिहाज़ा, नया नारा ज़रूरी है.
‘आरक्षण नीति की समीक्षा’ में संघ को नया नारा दिख रहा है. इसीलिए हार्दिक पटेल जैसे नौसिखिए को रातों-रात नायक बनाया गया. गुजरात के उस पटेल समुदाय को पूरी ताक़त से आरक्षण विरोधी मुहिम को चमकाने के काम पर लगा दिया गया, जो बीजेपी और संघ के साथ है और जिसके ज़्यादातर लोग सम्पन्न हैं. नारा गढ़ा गया कि ‘हमें भी दो, नहीं तो किसी को नहीं’. रणनीति देश को ये दिखाने की बनी कि आरक्षण से कमज़ोरों का भला तो हुआ नहीं, सम्पन्न और ‘लूटे’ जा रहे हैं. लिहाज़ा, उन्हें संगठित होने की ज़रूरत है, जिन्हें लूटा जा रहा है. संघ चाहता है कि अगले चुनाव तक ये तबक़ा संगठित होकर उबलने लगे और वो उसकी तपिस से अपनी सियासी रोटियाँ सेंककर वैसे ही आगे बढ़ जाए जैसे कभी ‘राम मन्दिर’ के सहारे बढ़ी थी.
राजनीति में ‘सब जायज़ है’ का नुस्ख़ा चलता है. जिसका नुस्ख़ा हिट हो जाए, वही सिकन्दर. नुस्ख़े और वोट-बैंक की ऐसी ही मजबूरी ने विश्वनाथ प्रताप सिंह को सताया था. बोफ़ोर्स तोप सौदे को गरमाकर वो प्रधानमंत्री तो बन गये लेकिन जल्द ही उन्हें अहसास हुआ कि उनके पास कोई वोट-बैंक नहीं है. तब मंडल आयोग की रिपोर्ट को झाड़-पोंछकर निकाला गया. इससे OBC का नया वोट-बैंक बना. वैसी ही ज़रूरत और चुनौती आज संघ को सता रही है. ऐसी ही तकलीफ़ ने अरविन्द केजरीवाल को बेचैन कर रखा है, तभी तो वो पहले दिन से ही पूर्ण राज्य की माँग को लेकर नरेन्द्र मोदी से टकराने लगे. इसीलिए मोहन भागवत का बयान बहुत दूरदर्शी है. अब ये जनता पर है कि वो उनके या केजरीवाल के नुस्ख़ों पर कैसे प्रतिक्रिया करती है? लेकिन ये तो तय है कि आरक्षण का शिगूफ़ा आने वाले दौर में खूब गुल खिलाएगा. ये आग अब रोके नहीं रूकेगी. भीतर ही भीतर इसे लगातार सुलगाये रखा जाएगा.
मुकेश कुमार सिंह
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